आदमी एक समय के बाद
हर जगह अजनबी हो जाता है
अगर अपने समय को खोजता रहता है
जैसे मृग अपने सुगंध को अपने से इतर
समय को बनाना ही जीवन है शायद
समय के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चलना भी
पानी के धार की तरह
पत्थर की लकीरों से अलग
एक मकान , एक गली ,
एक सड़क, एक चौराहा मित्रों
और अपनो का साथ
सब समय के साथ
शिलालेख की तरह नहीं पाए जाते
राह चलते चलते
स्मृतियाँ भी विलुप्त हो जाती हैं
घने कुहासे में हल्की बारिश की फुहार की तरह
आती जाती एक भींगती हुई बिल्ली
अंधेरी सड़क के किनारे बैठ जाती है
जिसकी आँखे अचानक कार की रोशनी में
चमकने लगती हैं
जैसे एक जाने- अनजाने शहर की गली में
सबसे मिलता जुलता और अलग भी
उसका अजनबीपन चमक रहा है !
कैसे एक नए बसते हुए खेमे में
चूहा उगते ही सूरज को
कुतरने लगता है ?
कैसे मछली बच्चों को
जन्मते ही मार देती है ?
कैसे एक औरत मुक्तकुन्तल हो
पुतलियों के होठों से शोकगीत
गा रही है ?
कैसे माटी में गड़ बनाया हुआ घर
हवा में तैर तहा है ?
और कैसे मर्द अजनबीयों की तरह
झाँक रहे है अंदर से
देखने के लिए की अब
शहर की गली में कब
और क्या होनेवाला है
जो गाँव से आए आदमी
को शहर में अजनबी
बना देता है ?
@anilprasad
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