Monday, January 10, 2022

मुसलसल जलता है अलाव वक्त की राखों का

मुसलसल जलता है अलाव वक्त की राखों का
तालाब के किनारे, तुम आए थे,  

आम के पेड़ के नीचे भरी दुपहरी सायकल की घंटी बजाए थे

विदा लेने, तुम घर पर आए  थे l

 

जब तुम जा रहे थे पढ़ने, घर से दूर

दूसरे शहर में, शायद टाटानगर या कानपूर  

तार टूटा  मन में और एक तारा बहुत दूर l

 

फिर कोई  ख़बर नहीं, अपनी अपनी दुनिया की

कभी-कभी कोई ख़बर मिलती उड़ती उड़ती चिड़िया सी

मन आसमान  और चाह एक बेसिम्त  उड़ती चिड़िया थी l

 

वर्षों बाद, नीले  सागर किनारे हुई थी मुलाकात

दो तीन पल धूमते रहे साथ साथ

फिर उड़ चले थे हम दोनों अपनी संभावनाओं का पकड़े हाथ l

 

वर्षों बाद,  एक पक्षी आ बैठा पुरानी शाखों पर

सहरा के बीच सहारा है यादों की आँखों पर

मुसलसल जलता है अलाव वक्त  की राखों  पर l

 

अब नहीं है आम का पेड़ वहाँ, बस तिश्नगी है तालाब के पास

खण्डहर है, धर नहीं, फिर भी, आस-पास यादें हैं ख़ास,

राह चलता  एक राही रूक कर उनसे बुझाता अपनी प्यास l

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